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कविता

अपने आप में

भवानीप्रसाद मिश्र


अपने आप में
एक ओछी चीज है समय
चीजों को तोड़ने वाला

मिटाने वाला बने-बनाए
महलों मकानों
देशों मौसमों

और खयालों को
मगर आज सुबह से
पकड़ लिए हैं मैंने

इस ओछे आदमी के कान
और वह मुझे
बेमन से ही सही

मजा दे रहा है
दस-पंद्रह मिनिट
सुख से बैठकर अकेले में

मैंने चाय भी पी है
लगभग घंटे-भर
नमिता को

जी खोलकर
पढाई है गीता
लगभग इतनी ही देर तक

गोड़ी हैं फूलों की क्यारियाँ
बाँधा है फिर से
ऊँचे पर

गिरा हुआ
चमेली का क्षुप
और

अब सोचता हूँ
दोपहर होने पर
बच्चों के साथ

बहुत दिनों में
बैठकर चौके में
भोजन करूँगा

हसूँगा बोलूँगा उनसे
जो लगभग
सहमे-सहमे से

घूमते रहते हैं आजकल
मेरी बीमारी के कारण
और फिर

सो जाऊँगा दो घंटे
समय अपने बस-भर
इस सबके बीच भी

मिटाता रहा होगा
चाय बनाने वाली
मेरी पत्नी को

गीता पढ़ने वाली
मेरी बेटी को
चमेली के क्षुप को

और मुझको भी
मगर मैं
इस सारे अंतराल में

पकड़े रहा हूँ
इस ओछे आदमी के कान
और बेमन से ही सही
देना पड़ा है उसे
हम सबको मजा !

 


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